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गुरुवार, 19 मई 2011

हवा की खुशबू और बगीचों की घास से मोहब्बत......भारतीनामा





गुनाहों का देवता ..इस किताब को जाने कितनी ही बार पढ गया हूं ..कई बार एक ही सिटिंग में तो कई बार चुनिंदा चुनिंदा पन्नों को ..और बहुत बार कोई भी पन्ना खोल कर । इसका आकर्षण मुझे हर बार बांध के रख देता है । और इसके आकर्षण में बंध जाने या कहूं कि बंध कर रह जाने वाला शायद मैं अकेला नहीं हूं । मुझे नहीं पता कि खुद धर्मवीर भारती को गुनाहों का देवता को लिखते हुए या उसके बाद कैसा अनुभव हुआ होगा लेकिन एक पाठक के तौर पर मैं यकीनी तौर पर ये कह सकता हूं कि ये किताब एक चलचित्र की तरह आंखों के सामने चलती है और दृश्य बदलते जाते हैं । जाने वाला दृश्य आने वाले दृश्य का कौतूहल बढा देता है । और अगर आप प्रकृति के रूप के प्रेमी हैं तो समझिए कि आपको सुधा , बिनती , गेसू से प्यार हो न हो आपको पन्नों पर दर्ज़ मौसम , फ़ूल , पत्तियो , हवा की खुशबू और बगीचों की घास से मोहब्बत जरूर हो जाएगी । देखिए वो कैसे आसपास की प्रकृति में पात्रों को समाविष्ट कर लेते हैं ,। देखिए एक बानगी इसकी आप भी पढिए ।

एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी , और जिसकी कहानी मैं कहने जा रहा हूं , वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक , प्रभाती गाकर फ़ूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ़्रेड पार्क के लॉन पर फ़ूलों की सरजमीं के किनारे किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा कोट , जिसका एक कालर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफ़ेद मक्खन जीन का पतला पैण्ट और पैरों में सफ़ेद ज़री की पेशावरी सैण्डिलें , भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊंचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी लटा । चलते-चलते उसने  एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूंघ लेता था ।


पूरब के आसमान की गुलाबी पांखुरियां बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फ़ूलों पर बिछ रही थी । " अरे सुबह हो गई !" उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया । सामने से एक माली आ रहा था । " क्यों जी , लाइब्रेरी खुल गयी ?" अभी नहीं बाबूजी !" उसने जवाब दिया । वह फ़िर सन्तोष से बैठ गया उर फ़ूलों की पांखुरियां नोंचकर नीचे फ़ेंकने लगा । जमीन पर विछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थी और पेडों की छायाओं का रंग गहराने लगा था । उसकी बेंच के नीचे फ़ूलों की चुनी हुई पत्तियां बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ़ एक फ़ूल बाकी रह गया था । हलके फ़ालसई रंग के उस फ़ूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे ।

धर्मवीर भारती , ने पूरे उपन्यास में प्रकृति को शब्दों में पिरोने के लिए कमाल की जादूगरी दिखाई है जो शायद ही अन्य किसी कृति में दिखाई दिया हो । खुद धर्मवीर भारती भी शायद उसे दोहरा नहीं पाए । और इसीलिए ये एक कालजयी कृति बन गई , एक ऐसी किताब जिसके लिए मुझे हमेशा से लगता रहा है कि , ये किताब एक युग है जिसे पाठक पढते हुए जीता है । देखिए कुछ और पंक्तियां ...
चित्र गूगल से साभार , गुनाहों का देवता में चित्रित प्रकृति की छवि तो दुर्लभ है जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है

और उसे दूसरा शौक था कि फ़ूलों के पौधों के पास से गुजरते हुए हर फ़ूल को समझने की कोशिश करना । अपनी नाजुक टहनियों पर हंसते-मुस्कराते हुए ये फ़ूल जैसे अपने र्म्गों की बोली में आदमी से जिन्दगी का जाने कौन सा राज कहना चाहते हैं । और ऐसा लगता है जैसे हर फ़ूल के पास अपना व्यक्तिगत सन्देश है जिसे वह अपने दिल की पांखुरियों मेम आहिस्ते से सहेज कर रखे हुए है कि कोई सुनने वाला मिले और वह अपनी दास्तां कह जाये । पौधे की ऊपरी फ़ुनगी पर मुसकराता हुआ आसमान की तरफ़ मुंह किये हुए यह गुलाब जो रात-भर सितारों की मुसकराहट चुपचाप पीता रहा है म यह अपनी मोतियों-पांखुरियों के होठों से जाने क्यों खिलखिलाता ही जा रहा है । जाने इसे कौन सा रहस्य मिल गया है । और वह एक नीचे वाली टहनी में आधा झुका हुआ गुलाब, झुकी पलकों सी पांखुरियां और दोहरे मखमली तार सी उसकी डण्डी , यह गुलाब जाने क्यों उदास है ? और यह दुबली पतली लम्बी सी नाजुक कली जो बहुत सावधानी से हरा आंचल लपेटे है और प्रथम ज्ञात-यौवना की तरह लाज में जो सिमटी तो सिमटी ही चली जा रही है , लेकिन जिसके यौवन की गुलाबी लपटें सात हरे पर्दों में से झलकी ही पढती हैं , झलकी ही पडती हैं । और फ़ारस के शाहजादे जैसा शान से खिला हुआ पीला गुलाब ! उस पीले गुलाब के पास आकर चन्दर रुक गया और झुककर देखने लगा । कातिक पूनो की चांद से झरने वाले अमृत को पीने के लिए व्याकुल किसी सुकुमार , भावुक परी की फ़ली हुए अंजलि के बराबर बडा सा वह फ़ूल जैसे रोशनी बिखेर रहा था । बेगमबेलिया के कुंज से छनकर आने वाली तोतापंखी धूप ने जैसे उस पर धान-पान की तरह खुशनुमा हरियाली बिखेर दी थी ।


कल पढेंगे कुछ और पन्ने .......आप पढ रहे हैं न

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

न तो वो लखनऊ रहा न ही लखनऊ की वो गलियां ..........भारतीनामा ..




गुनाहों का देवता के हर पन्ने को पर धर्मवीर भारती द्वारा शब्दों का बुना हुआ एक ऐसा संसार मिलेगा जिसमें आपको न सिर्फ़ उस खास पन्ने पर रची गई दुनिया एक एक झलक ..बल्कि वहां उड रही धूल और बह रही ठंडी हवा , पेडों की छाया , धूप की ठसक और घास पत्तों की खुशबू तक का एहसास होगा । शब्दों को एक साथ ऐसे रख कर आप वास्तविक दुनिया को ...क्योंकि इस किताब को पढने के बाद आप ये मान ही नहीं सकते कि कि ये काल्पनिक उपन्यास हो सकता है , किताब पर इतनी भली भांति उकेर सकते हैं ..इस बात को गुनाहों का देवता से ही समझा जा सकता है ।

चलिए कुछ शुरूआत की पंक्तियों को देखते हैं ,

"अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएं आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है । ऐसा भी लगता है कि इस शहर की बनावट ,गठन , जिन्दगी और  रहन-सहन मे कोई बंधे -बंधाये नियम नहीं , कहीं कोई कसाव नहीं , हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई सी अनियमितता । बनारस की गलियों से भी पतली गलियां और लखनऊ की सडकों से चौडी सडकें । यार्कशायर और ब्रिटेन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले । मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं ,कोई सन्तुलन नहीं  सुबहें मलयजी. दोपहरें अंगारी , तो शामें रेशमी । धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले , मालवा की तरह्य हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमीं नहीं । सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं ।"


देखिए क्या संभव है कि अब कोई लखनऊ की शफ़्फ़ाक नज़ाकत को कोई इस तरह से आपके सामने रख सके ..आज न तो वो लखनऊ रहा  न ही लखनऊ की वो गलियां . तो कोई चाहे भी तो उस समय को कैसे जी सकता है , न सिर्फ़ लखनऊ , बल्कि प्रयाग , इलाहाबाद , बनारस कुछ भी तो नहीं छूटा है इस भारतीनामा में । इन पंक्तियों में जब यार्कशायर और ब्रिटेन के उपनगरों के कुछ खास स्थानों का ज़िक्र उन्होंने इतने पैने अंदाज़ में और तुलनात्मक रूप से किया है कि स्पष्ट महसूस होता है कि जैस कि अक्सर कोशिश की जाती रही है कि ब्रितानी व्यवस्था और नगर तत्कालीन भारतीय नगरीय व्यवस्था से अच्छे थे की पूरी बखिया उधेड कर रखे दी है ।  आगे की पंक्तियों में शब्द संयोजन का आलम देखिए

सुबहें मलयजी ,
दोपहरें अंगारी ,
शामें रेशमी ,

तीनों पहर को इतने सुंदर विशेषण के साथ कभी देखा पढा और कहीं अन्यत्र ।  अब आगे पढिए

"और चाहे जो हो , नगर इधर क्वार ,कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टशिर्यम और पैंजी के फ़ूलों से भी ज्या खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है । सिविल लाइन्स हो या अल्फ़्रेड पार्क , गंगातट हो या खुसरूबाग , लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आंचल और लहरों के मिजान से छेडखानी करती चलती है । और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जायें तो इन खुली हुई जगहों की फ़िजां इठलाकर आपको अपने जादू में बांध लेगी। खास तौर से पौ फ़टने से पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी । वसन्त के नय-नये मौसमी फ़ूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हलकी सुनहली, बाल-सूर्य की अंगुलियां सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओं को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरुणाई बिखर पढती है । "


 इस किताब में धर्मवीर भारती ने जैसे धरती के एक एक पोर को , और उस पर बहने चलने वाली हवा के रेशे रेशे को अपन जादुई शब्दों से जिस तरह से अपने पाठकों के सामने रखा है पाठक उसे पढते हुए ठीक उसी तरह का महसूस करता है जैसा कि धर्मवीर भारती ने इसे उकेरते हुए महसूसा होगा ।

इस किताब ने अपने पाठकों को हर बार एक नया शब्द , एक नया अहसास , एक नया युग , एक नई कहानी , और जाने क्या क्या दिया है । सबसे विस्मयकारी बात ये है कि आज भी इसका जादू न सिर्फ़ बरकरार है बल्कि तरूणाई से लेकर परिपक्वता पाए हर पाठक को एक अलग ही अनुभव देता है ।..
















शनिवार, 26 मार्च 2011

कोने में रखी एक किताब .......गुनाहों का देवता............भारतीनामा ( एक श्रंखला )



ये महज़ एक किताब नहीं , एक पूरा युग है जिसे मैंने जियो है और अब भी जी रहा हूं



ये इस ब्लॉग की पहली पोस्ट है । इस ब्लॉग के यहां होने की भी एक दिलचस्प वजह है । किताबें शुरू से ही बहुत लोगों की तरह में मेरे वही प्रिय दोस्त रहे हैं । ये अलग बात है कि इन किताबों के दायरे में पहले कॉमिक्स , फ़िर वेद प्रकाश शर्मा , गुलशन नंदा , और कर्नल रंजीत सरीखे लेखक आए । अपने संघर्ष के दिनों में मुझे मेरे एक सीनीयर प्रफ़ुल्ल भईया ने अचानक ही एक दिन मेरे हाथों में ये किताब रख दी । नाम था गुनाहों का देवता ..इस किताब ने हिंदी साहित्य की किताबों की तरफ़ दीवानेपन का वो दरवाज़ा मेरे भीतर खोल दिया कि आज कमोबेश मेरे पास लगभग छ सौ किताबें हैं वो भी मित्रों द्वारा पढने के बहाने टपाने के बावजूद भी ।


इन किताबों को पढने का अवसर , जी हां नियमित मैं कभी भी नहीं पढ पाता हूं ..अक्सर मुझे लंबे सफ़र में या फ़िर घर से बाहर कहीं समय बिताते समय मिल ही जाता है और कमाल दे्खिए कि इस ब्लॉग का जन्म भी हाल ही में चर्चित पुस्तक five point someone को रास्ते में पढते समय ही आया था । इन किताबों को पढते समय ये ख्याल आया कि हर किताब पाठक के कान में फ़ुसफ़ुसा के कुछ न कुछ कह ही जाती है और कमाल की बात ये है कि एक ही किताब पाठक के कान में हर बार अलग अलग बात कहती है । सोचा कि फ़िर वो क्या कहती है उसे सबके सामने रखने के लिए इससे अच्छा मंच तो हो ही नहीं सकता है ।


मैं बात कर रहा था गुनाहों का देवता की । अब इस किताब को दोबारो हाथ में उठा लिया है , मुझे नहीं मालूम कि इस किताब से बेहतर किताबें भी हिंद साहित्य में होंगी अवश्य ही होंगी लेकिन जो कुछ मैंने इस किताब में पाया है या अब भी पढने पर पाता हूं वो दूसरी कोई किताब नहीं दे सकती । चंदर , सुधा , पम्मी के इर्दगिर्द ..धरमवीर भारती ने अपने जादुई शब्दों का  जो ताना बाना बुना है उसमें एक पूरा युग समाहित है । मेरे पास जो संस्करण है

उसमें विवरण के रूप में ये दर्ज़ है :

लोकोदय ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक 79

प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ ,
18 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , लोदी रोड
नयी दिल्ली -११००३२

पेपरबैक संस्करण : 1998 (द्वितीय आवृत्ति )
मूल्य : 50.00 रुपये


कुछ कमाल की खास बातें ये कि किताब में कहीं भी धर्मवीर भारती के नाम के अलावा कुछ भी उनके बारे में नहीं कहा गया है । मसलन लेखक का भारीभरकम परिचय , उनकी शिक्षा दीक्षा का वर्णन , या पुरस्कारों की सूचना आदि सिर्फ़ नाम लिख के धर दिया सामने । इतना भर लिख कर


इस उपन्यास के नये संस्करण पर दो शब्द लिखते समय में समझ नहीं पा रहा हूं कि क्या लिखूं ? अधिक से अधिक मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता उन सभी पाठकों प्रति व्यक्त कर सकता हूं जिन्होंने इसकी कलात्मक अपरिपक्वता के बावजूद इसको पसन्द किय अहै । मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीडा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना , और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन -ही-मन दोहरा रहा हूं , बस ..........


       अगली पोस्ट से" भारतीनामा "...गुनाहों का देवता का पन्ना दर पन्ना स्वाद ...मैं आपके सामने रखने का प्रयत्न करूंगा ..फ़िलहाल इस किताब से सिर्फ़ दो पंक्तियां पढिए


"बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहां , 
वह मजा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है, 
मुइतमइन बेफ़िक्र लोगों की हंसी में भी कहां 
लुत्फ़ जो एक दूसरे की देखकर रोने में है ।" 






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