सबसे कम खर्चीला मनोरंजन होता है किताबों से और ये स्थाई होता है : जार्ज बर्नार्ड शॉ यही नहीं किसी और ने भी कहा है कि किताबें जिन्दगी के सबसे अच्छी दोस्त , सबसे करीब की रिश्तेदार और सबसे काबिल गुरु होती हैं | ये सच भी है वे यह बातें बखूबी जानते हैं जिनकी सच में ही पढने में रूचि हो जाती है | किताबों से पहला वाकफा जो इंसान का होता है वो अक्सर होता है पढाई लिखाई की किताबों से , शायद यही वजह है कि हमारे जैसे बहुत सारे नालायक बच्चों को उम्र के शुरुआती दिनों में किताबों से दोस्ती और नज़दीकी तो दूर कमोबेश वे दुश्मन सरीखे ही लगने लगते हैं | हालांकि हमारे दौर में तो बाल साहित्य और कामिक्स प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था | चम्पक , चंदामामा , नंदन , बालहंस जैसी जाने कितनी ही बाल पत्रिकाएँ सभी बच्चों की पसंदीदा हुआ करती थीं | इनके साथ ही सचित्र छपने वाले कामिक्स का तो जैसे एक अलग ही तरह का दीवानापन हुआ करता था | उन दिनों रेडियो पर दिन में डायमंड पाकेट बुक्स प्रकाशन की चाचा चौधरी , बिल्लू , पिंकी , नागराज , मैन्ड्रेक , फैंटम , मोटू पतलू और इन जैसे पचासों कार्टून चरित्रों का स्थान आज के सुपर हीरोज़ और किसी भी बौलीवुड हीरो से कहीं ज्यादा हुआ करता था |
उम्र बढी तो हाथ आयी वो मोटी मोटी उपन्यासनुमा तिलस्म का संसार | वेद प्रकाश शर्मा , गुलशन नंदा , कर्नल रंजीत और जाने ऐसे कितने नामों और इन नामों द्वारा रचे गए पात्रों , विजय विकास , टाईगर और पता नहीं कौन कौन के मोहपाश में फंसने के दिन अब भी याद आते हैं तो रोमांच हो आता है | उन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में और शायद शहरी क्षेत्र में भी इन उपन्यासों को पचास पैसे और एक रुपये में किराए पर देने का चलन था | उफ़ वो रात को लालटेन की रोशनी में पूरे उपन्यास को एक ही झोंक में पढ़ जाने का जूनून | क्या अनाप शनाप रचा जाता था , बेशक अंतरिक्ष यान अब मंगल पर पहुंचा हो किन्तु उन दिनों तो उन उपन्यासों के पात्र मंगल क्या शनि और प्लूटो तक की सैर करके लड़ाई मारा मारी करके बाकायदा जीत के आते थे | वो मोटे मोटे उपन्यास न बोर करते थे और न ही थकाते थे और लगभग सबके तकियों के आसपास जरूर दिख जाया करते थे |
इसके आगे का सफ़र तय हुआ प्रतियोगिता परिक्षा के लिए बुनियादी पाठ्यपुस्तकों की घिसाई के साथ |जाने कितनी ही पत्रिकाओं अखबारों के अलावा सामान्य ज्ञान सहित इतिहास , भूगोल , विज्ञान , गणित , अंगरेजी , हिन्दी और सब विषयों को घोल घोल के पीने की बारी थी | हमने उसमें भी कोइ कोर कसर नहीं छोडी | शायद उसी का परिणाम आगे अपेक्षित सफलता मिलना रहा | किन्तु इसी दौर में साथ के रूम मेट्स में से एक हमारे अग्रज भ्राता जैसे मित्र प्रफुल्ल भाई के पास "गुनाहों का देवता " जिसे धर्मवीर भारती का कालजयी उपन्यास माना जाता है , दिख गयी , हाथ में आते ही पूरी पढ़ डाली , दूसरी थी मुझे चाँद चाहिए , तीसरी देवदास और उसके बाद जो ये सिलसिला चला तो कब हरिवंश राय , नागार्जुन , महादेवी वर्मा , निर्मल वर्मा , आचार्य चतुरसेन और जाने कितने नए पुराने नामों की कृतियाँ आती रहीं और हम पढ़ते रहे | आज भी पांच सौ से अधिक कृतियाँ अपनी छोटे से कोने में सजी मुस्कुराती रहती हैं | दिल्ली के पुस्तक मेलों ने इसमें बड़ा साथ दिया | हर साल ढेरों पुस्तकें संग्रह में आती गयीं |
इसके साथ ही कुछ पेशेगत स्वाभाविकता में कुछ अपनी विधि की शिक्षा के कारण विधि की पुस्तकों का भी बारीकी से अध्ययन चलता रहा जो अब भी बदस्तूर जारी है | कमाल का रोचक विषय और उतनी ही गूढ़ और रोचक पुस्तकें हैं विधि की ..आजकल इनमें अध्यात्म और राष्ट्रीय साहित्य भी जुड़ गया है | सोचता हूँ कि यदि औसत उम्र साठ वर्ष भी हो तो भी पूरी ज़िंदगी में हम ऐसे न जाने कितने ही नायाब दोस्त , रिश्तेदार और गुरु पा सकते हैं .....तभी अक्सर कहता हूँ ..किताबें जिंदाबाद ..पढाई जिंदाबाद
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दिल्ली पुस्तक मेले में इस बार खरीदी गयी पुस्तकें |
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मीनार बढ़ती रहे आनदं बढ़ता जाता है |
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