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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

किताबों से इश्क के किस्से ...







किसी के रूठने ,मनाने किसी के उतरने चढने का ये मौसम है ,
हमसे खुशबू आने लगी है कागज़ों की , पढने का ये मौसम है ....

ठीक ठीक तो नहीं जानता कि मुझे किताबों से कब इतना इश्क हो गया मगर जुनूनी तो यकीनन ही मैं शायद अपनी मैट्रिक परीक्षा के बाद से हो गया था पढाई के प्रति । सबसे पहले जो दो किताबें बेहद दिलचस्प और हमेशा ही साथ रहीं वो  थी डिक्शनरी और एटलस । हमने पढना तो पढना उन दोनों में बहुत सारे दिलचस्प खेल भी तलाश रखे थे ।मसलन एटलस में देशों का नाम ढूंढने वाला खेल ।
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मगर मैट्रिक के बाद पडी छुट्टियों और फ़िर उसके बाद पूरे कालेजियाने के दिनों में हमने कामिक्सों की दुनिया यानि कि फ़ैंटम , मैंड्रेक , चाचा चौधरी , फ़ौलादी सिंह , पिंकी , बिल्लू , रमन , मोटू पतलू , आदि की फ़्रैंडशिप से आगे बढते हुए , विजय , विकास , कर्नल रंजीत , वाली मोटे मोटे उपन्यासों की गोद में जा बैठे , उफ़्फ़ क्या दिन थे वे भी , होड सी लगी रहती थी पढने और खत्म करने की , किराए पर अठन्नी एक रुपए में भी मिल जाया करती थी । विजय विकास के कारनामें आज के कृष और जी वन से ज्यादा हैरतअंगेज़ हुआ करते थे , गजब की तिलस्मी दुनिया थी वो ,सबको एक मोहपाश में जकडे हुए , हमारे घर में चाचियों , मामियों तक के हाथों में गुलशन नंदा चमका करते थे ।
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वो दौर भी बीता और स्नातक में अंग्रेजी साहित्य को करीब से जाना , पढा , समझा , शेक्सपीयर की जादुई दुनिया में खूब डूबे उतराए , जॉन कीट्स की कविताई भी बांचीं  और फ़िर  अपने संघर्षों के दिनों में परिचय हुआ गुनाहों के देवता से , जी हां हिंदी साहित्य से मेरी पहली पहचान जिस कृति से हुई बल्कि कहना चाहिए कि जिस युग से हो गई उसने फ़िर मुझे अपने मोहपाश में जकड लिया । अगली किताब जो हाथ में थी वो थी "मुझे चांद चाहिए " , सुना था कि इस किताब पर बाद में कोई धारावाहिक भी बना था , लगभग सात सौ पृष्ठों की वो किताब मैंने शायद तीन बार पढी थी , हर बार मज़ा आया था ।
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इसके बाद तो जैसे एक जुनून सा हो गया मुझे , साहित्य की सारी किताबों को पढ जाने का और इसमें मेरा भरपूर साथ दिया राजधानी दिल्ली में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले दिल्ली पुस्तक मेले और विश्व पुस्तक मेले ने , शायद बीते वर्ष को छोडकर मैं पिछले बहुत सालों से लगातार जाता रहा । और इसके साथ ही दरियागंज की किताबों की वो संडे मार्केट । प्रेमचंद , नागार्जुन , आचार्य चतुर सेन , बंकिम समग्र , शरत साहित्य , शिवानी , अमृता प्रीतम , कौन सा नाम लूं और कौन सा नहीं , कुल मिलाकर भूख बढती गई किताबों और उनमें बसी छुपी दुनिया को पहचानने की ।
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इसके बाद शुरू हुई असली परीक्षा जब विधि के छात्र के रूप में पाला पडा खूब भारी भारी गूढ समझ बूझ वाली विधि की पुस्तकों से । चूंकि कार्यक्षेत्र भी विधि का ही क्षेत्र रहा इसलिए मुझे इसे और बेहतर तरीके से जानने समझने की उत्कट इच्छा थी । जैसे जैसे विधि की पढाई करता जा रहा हूं और कानून के सारे हर्फ़ों को समझ रहा हूं उनकी बारीकी को जानने का प्रयास कर रहा हूं इस विषय के प्रति मेरा सम्मान बहुत ज्यादा बढता जा रहा है । इतने विस्तृत आयामों वाला कोई अन्य विषय मैंने नहीं पाया ।
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मगर सफ़र के दौरान अब भी मुझे सिर्फ़ साहित्य की पुस्तकें अच्छी लगती हैं विशेषकर कहानियां और उपन्यास । सफ़र के दौरान निश्चित कुछ सामानों की सूची में किताबें सबसे ऊपर होती हैं ।  चलते चलते एक याद और वो ये कि बहुत सारे उन कमीने दोस्तों का भी शुक्रिया जो बहाने से मेरी किताब ले भागे और पढने पुढने के बाद भी कमब्ख्तों ने वापस नहीं की , देवदास और मधुशाला दोनों ही दोबारा खरीदनी पडी थीं मुझे , मगर  किताबों से हुआ ये इश्क अब दिनों दिन ज्यादा जवान होता जाता है .................

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (1-2-2014) "मधुमास" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1510 पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

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    उत्तर
    1. पोस्ट को मान व स्नेह देने के लिए आपका आभार राजीव जी और सूचना देने के लिए शुक्रिया

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  2. 80-90 के दशक में बड़े होने वाला हर बच्चा शायद इन्हीं स्थिति-परिस्थितियों से गुजरा होगा...| कॉमिक्स से लगाव का दौर था वो...और बेहद खुशनुमा भी...| nostalgic-सा करने के लिए शुक्रिया...अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़ कर...|
    वैसे कुछ कुछ ऐसी ही यादें मेरी भी हैं एक ब्लॉग-पोस्ट के रूप में...तभी ज़्यादा नोस्टाल्जिया गए...|

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    उत्तर
    1. हां मुझे ये जानकर अब हैरानी नहीं होती कि हम सबका बचपन लगभग एक जैसा बीता है और कमाल की बीता है कि हम सब उसे उसी शिद्दत से जीते हैं ..बहुत बहुत शुक्रिया अपनी प्यारी सी प्रतिक्रिया देने के लिए

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  3. bahut sundar prastuti yah bachpan me ham sabhi ne aisa hi jiya hai , kitabo se rashk hona ek alag hi anand hai . badhai sudar prastutikaran par

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  4. मैंने भी बचपन में बहुत कॉमिक्स पढ़ी। जिसमें मेरे पसन्दीदा कॉमिक्स - चाचा चौधरी, नागराज आदि थे और हैं !! बढ़िया प्रस्तुति,,, सादर धन्यवाद।।

    नई कड़ियाँ : समीक्षा - यूसी ब्राउज़र 9.5 ( Review - UC Browser 9.5 )

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  5. लम्बा सफर हो तो किताब से अच्छा साथी कोई नहीं ..
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..

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  6. बहुत सुन्दर। किताबें वफादार होती हैं।
    मेरी सोच मेरी मंजिल

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  7. किताबों से अच्‍छा दोस्‍त और कोई नहीं होता। बहुत ही सुंदर लेख।

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मैंने किताब को पढा और फ़िर लिखा ..आपने पोस्ट को पढा और ......लिखा क्या ??? अरे तो लिखिए न फ़िर ...क्या सोच रहे हैं जी

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