फ़ॉलोअर

शनिवार, 4 जनवरी 2020

विश्व पुस्तक मेला 2019





#विश्वपुस्तकमेला 2019
मैं दिल्ली के लगभग हर पुस्तक मेले में ,एक पाठक जिसे किताबें खरीदने और पढ़ने का जुनून है,  की हैसियत से जरूर शिरकत करने का प्रयास करता हूँ और अधिकाँश बार सफल भी होता  हूँ | शुरआती दिनों में हिंदी साहित्य  की सिर्फ इतनी समझ थी कि तमाम नामचीन लेखकों साहित्यकारों की किताबें ,विशेषकर उपन्यास ,कहानी संग्रह ,प्रतिनिधि कहानियां  आदि खरीद कर लाता था और पढता था | धीरे धीरे आकर्षण उन नई पुस्तकों  की ओर  बढ़ा जिन किताबों का ज़िक्र पुरस्कार प्राप्त करने वाली फेहरिश्त में होता था फिर किताबों की  समीक्षा ने भी नई  किताबों से परिचय करवाया | 




पिछले कुछ समय में देखा और पाया कि ,बहुत सारे मित्र ,ब्लॉगर साथी और अन्य परिचित भी लेखक के  रूप में  इन पुस्तक मेलों में  चमकते मिलने लगे | अब इससे अधिक खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि किताबों के लेखक किताब  पढ़ने  से पहले ही रूबरू थे न सिर्फ आमने सामने बल्कि  बड़े  स्नेह से  अपने हस्ताक्षरों  सहित प्रेमपूर्वक स्नेह भी दे रहे थे | कुल मिला कर अब तो शायद ही कोई ऐसा पुस्तक मेला  हो जिसमें हमारे मित्रों /दोस्तों /परिचितों की किताबें  न आ रही हों , उनका विमोचन न हो रहा हो | पाठक के रूप में और निरे पाठक के रूप में हम जैसे गिने चुने ही बचे हुए हैं  जो लेखकों और पाठकों के लिए भी  थोड़ा सुकूनदायक  तो होगा ही |

पिछले कुछ समय से प्रकाशकों और शायद इसमें लेखकों की भी मिलीभगत हो सकती है  ,द्वारा पाठकों के साथ एक गुपचुप  धोखाधड़ी  भी देखने में आ रही है और हो सकता है कि ये सिर्फ मेरे जैसे  ढेरम ढेर किताबें खरीदने वाले को लगा हो  | वो ये कि पूर्व प्रकाशित कहानी संग्रहों को  किसी  नई कहानी और नए कलेवर  के साथ  पूरे तामझाम से परोस देना | यानि  नई बोतल में पुरानी शराब | यहां तक कि कहीं इस बात का कोई ज़िक्र तक नहीं होता नए  संस्करण में कि  अमुक कहानी संग्रह पहले भी  अमुक नाम और कलेवर से प्रकाशित हो चुकी है | एक पाठक के साथ ये अनुचित  लेखकीय और प्रकाशकीय व्यवहार है |

आज बच्चों का दिन रहा ,किताबों से उनकी दोस्ती कराना  मेरा दायित्व है और किताबों के प्रति आकर्षण पैदा करना  मेरा कर्तव्य  | ज़िंदगी को बेहतर समझने के लिए  और ज़िंदगी से पहले  तथा  ज़िंदगी के बाद को भी समझने के लिए  किताबें  बहुत अहम् हैं  किसी धरोहर से कम नहीं हैं  किताबें 





कल फिर जा रहा हूँ , और लौट कर बातें करूंगा ,नए लेखकों  के विषय , भाषा , प्रवाह , साहित्य  ,सम्मान के रुख पर.  .. ..  ..  

सोमवार, 19 सितंबर 2016

कांच के शामियाने

कांच के शामियाने





किताबें पढना और बात और उन किताबों पर कुछ कहना या लिखना जुदा बात और ज्यादा कठिन इसलिए भी क्योंकि लेखनी से आप पहले से ही परिचित हों तो जी हाँ यह मैं, बात कर रहा हूं रश्मि रविजा के उपन्यास कांच  के शामियाने की। उपन्यास हाथ में आते हुई एक सांस में पढता चला गया और ये काम मैं पहली बार नहीं कर रहा था , खैर |


 चूंकि रश्मि मेरे मित्र समूह में हैं सो उनको मैं पढता तो लगभग रोज़ ही रहा हूँ और अपने आसपास घटती  घटनाओं , लोगों , समाचारों पर उनकी सधी हुई प्रतिक्रया अक्सर फेसबुक पर ही बहुत बडी बड़ी बहसों और विमर्शों का बायस बनी हैं | सो उनकी लेखनी से परिचय तो था ही हाँ उपन्यास के रूप में पढना अलग अनुभव रहा | 

खुल 203 पन्नों  से सजा हुआ यह उपन्यास बेहद खूबसूरत कलेवर ,उत्कृष्ट पेपर क्वालिटी के साथ  पेपर बैक  में लगभग हर ऑनलाइन स्टोर में उपलब्ध है , | वैसे इसके बारे में पढने के बाद जो बात मेरे विचार में तुरंत आई वो ये थी कि , पढने , दोबारा पढने , सहेजने , अपने किसी मित्र ,दोस्त ,सखा व् सहेलियों को उपहारस्वरूप देने योग्य एक उत्कृष्ट रचना साहित्य |

मैं आलोचक नहीं हूँ ,और हो भी नहीं सकता क्योंकि एक विशुद्ध पाठक की ही समझ अभी ठीक से बन नहीं पाई है । हाँ खुद इस अंचल से सम्बन्ध होने के कारण पूरे उपन्यास को पढ़ने के दौरान  मैं खुद कभी जया कभी राजीव ही नहीं बल्कि कभी घर आँगन और आसपास की सभी वस्तुओं में खुद को अनायास ही पाता रहा | 

कहानी एक साधारण सी शख्सियत के असाधारण से संघर्ष की कहानी है असाधारण  इसलिए  क्योंकि   उसे  पूरे जीवन  में  भीतर बाहर संघर्ष करना  पड़ता  है  |  उसकी लड़ाई अपने आसपास की परिस्थितियों , अपने आसपास मौजूद परिवारजनों , उनकी दकियानूसी सोच , और विशेषकर अपने जीवन साथी राजीव के विचित्र पुरुषवादी मानसिकता से तब तक चलती रहती है जब तक कि वो इस कांच के शामियाने को तोड़ कर पूरी तरह से बाहर नहीं निकल जाती  है |हालांकि बच्चों में सबसे छोटी जया अपने ससुराल वालों विशेषकर पति के हर जुल्म , हर ताने , हर प्रताड़ना को इतने लम्बे समय तक झेलने के लिए क्यों अभिशप्त हो जाती है , वो भी तब जब वो क़ानून अदालत समझती है , फिर भी उसकी ये विवशता मुझ जैसे पाठक को कई बार बहुत ही क्षुब्ध कर देती है |


लेखिका ने किताब में शैली इतनी जानदार रखी है और रही सही सारी कसर बोलचाल की आसान भाषा ने पूरी कर  दी है | पाठक सरलता से जया के साथ साथ उस  पूरी दुनिया को जी पाता है  | लेखिका  होने के कारण जया  के संघर्षों उसकी स्थिति , शारीरिक व् मानसिक , उसकी व्यथा उसकी कहानी को जितनी प्रभावपूर्ण और मार्मिक रूप से न सिर्फ महसूस बल्कि उसे शब्दों में ढाल कर हमेशा के लिए हम पाठकों के दिमाग में बसा कर रख दिया | या यूं कही कि जाया कांच के शामियाने से निकल कर पाठकों के मन में बैठ गयी और हमेशा रहेगी ठीक उसी तरह जैसे गुनाहों का देवता  की सुधा |

उपन्यास जया की पूरी कहानी है इसलिए जीवन के हर रूप रंग और धुप छाया से रूबरू कराती है मगर आखिर में जाया के जीवन में खुशियों सफलता और आत्मविश्वास का जो इन्द्रधनुष जगा देती है वो पाठक को एक सुखान्त सुकून सा देती है | सच कहूं तो सच होते अनदेखे सपने वाला अंश एक पाठक के रूप में जया जैसे किसी पात्र के दोस्त के रूप में भी मुझे सबसे अधिक पसंद आया , कुल मिला कर संक्षिप्त में कहूं और एक पाठक के रूप में कहूं तो पैसा वसूल है , फ़ौरन ही पढ़ डालने योग्य | 

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

किताबें जीवन की सच्ची साथी







सबसे कम खर्चीला मनोरंजन होता  है किताबों से और ये स्थाई होता है : जार्ज बर्नार्ड शॉ


यही नहीं किसी और ने भी कहा है कि किताबें जिन्दगी के सबसे अच्छी दोस्त , सबसे करीब की रिश्तेदार और सबसे काबिल गुरु होती हैं | ये सच भी है वे यह बातें बखूबी जानते हैं जिनकी सच में ही पढने में रूचि हो जाती है | किताबों से पहला वाकफा जो इंसान का होता है वो अक्सर होता है पढाई लिखाई की किताबों से , शायद यही वजह है कि हमारे जैसे बहुत सारे नालायक बच्चों को उम्र के शुरुआती दिनों में किताबों से दोस्ती और नज़दीकी तो दूर कमोबेश वे दुश्मन सरीखे ही लगने लगते हैं | हालांकि हमारे दौर में तो बाल साहित्य और कामिक्स प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था | चम्पक , चंदामामा , नंदन , बालहंस जैसी जाने कितनी ही बाल पत्रिकाएँ सभी बच्चों की पसंदीदा हुआ करती थीं | इनके साथ ही सचित्र छपने वाले कामिक्स का तो जैसे एक अलग ही तरह का दीवानापन हुआ करता था | उन दिनों रेडियो पर दिन में डायमंड पाकेट बुक्स प्रकाशन की चाचा चौधरी , बिल्लू , पिंकी , नागराज , मैन्ड्रेक , फैंटम , मोटू पतलू और इन जैसे पचासों कार्टून चरित्रों का स्थान आज के सुपर हीरोज़ और किसी भी बौलीवुड हीरो से कहीं ज्यादा हुआ करता था |

उम्र बढी तो हाथ आयी वो मोटी मोटी उपन्यासनुमा तिलस्म का संसार | वेद प्रकाश शर्मा , गुलशन नंदा , कर्नल रंजीत और जाने ऐसे कितने नामों और इन नामों द्वारा रचे गए पात्रों , विजय विकास , टाईगर और पता नहीं कौन कौन के मोहपाश में फंसने के दिन अब भी याद आते हैं तो रोमांच हो आता है | उन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में और शायद शहरी क्षेत्र में भी इन उपन्यासों को पचास पैसे और एक रुपये में किराए पर देने का चलन था | उफ़ वो रात को लालटेन की रोशनी में पूरे उपन्यास को एक ही झोंक में पढ़ जाने का जूनून | क्या अनाप शनाप रचा जाता था , बेशक अंतरिक्ष यान अब मंगल पर पहुंचा हो किन्तु उन दिनों तो उन उपन्यासों के पात्र मंगल क्या शनि और प्लूटो तक की सैर करके लड़ाई मारा मारी करके बाकायदा जीत के आते थे | वो मोटे मोटे उपन्यास न बोर करते थे और न ही थकाते थे और लगभग सबके तकियों के आसपास जरूर दिख जाया करते थे |


इसके आगे का सफ़र तय हुआ प्रतियोगिता परिक्षा के लिए बुनियादी पाठ्यपुस्तकों की घिसाई के साथ |जाने कितनी ही पत्रिकाओं अखबारों के अलावा सामान्य ज्ञान सहित इतिहास , भूगोल , विज्ञान , गणित , अंगरेजी , हिन्दी और सब विषयों को घोल घोल के  पीने की बारी थी | हमने उसमें भी कोइ कोर कसर नहीं छोडी | शायद उसी का परिणाम आगे अपेक्षित सफलता मिलना रहा | किन्तु इसी दौर में साथ के रूम मेट्स में से एक हमारे अग्रज भ्राता जैसे मित्र प्रफुल्ल भाई के पास "गुनाहों का देवता " जिसे धर्मवीर भारती का कालजयी उपन्यास माना जाता है , दिख गयी , हाथ में आते ही पूरी पढ़ डाली , दूसरी थी मुझे चाँद चाहिए , तीसरी देवदास और उसके बाद जो ये सिलसिला चला तो कब हरिवंश राय , नागार्जुन , महादेवी वर्मा , निर्मल वर्मा , आचार्य चतुरसेन और जाने कितने नए पुराने नामों की कृतियाँ आती रहीं और हम पढ़ते रहे | आज भी पांच सौ से अधिक कृतियाँ अपनी छोटे से कोने में सजी मुस्कुराती रहती हैं | दिल्ली के पुस्तक मेलों ने इसमें बड़ा साथ दिया | हर साल ढेरों पुस्तकें संग्रह में आती गयीं |


इसके साथ ही कुछ पेशेगत स्वाभाविकता में कुछ अपनी विधि की शिक्षा के कारण विधि की पुस्तकों का भी बारीकी से अध्ययन चलता रहा जो अब भी बदस्तूर जारी है | कमाल का रोचक विषय और उतनी ही गूढ़ और रोचक पुस्तकें हैं विधि की ..आजकल इनमें अध्यात्म और राष्ट्रीय साहित्य भी जुड़ गया है | सोचता हूँ कि यदि औसत उम्र साठ वर्ष भी हो तो भी पूरी ज़िंदगी में हम ऐसे न जाने कितने ही नायाब दोस्त , रिश्तेदार और गुरु पा सकते हैं .....तभी अक्सर कहता हूँ ..किताबें जिंदाबाद ..पढाई जिंदाबाद


दिल्ली पुस्तक मेले में इस बार खरीदी गयी पुस्तकें

मीनार बढ़ती रहे आनदं बढ़ता जाता है 



गुरुवार, 30 जनवरी 2014

किताबों से इश्क के किस्से ...







किसी के रूठने ,मनाने किसी के उतरने चढने का ये मौसम है ,
हमसे खुशबू आने लगी है कागज़ों की , पढने का ये मौसम है ....

ठीक ठीक तो नहीं जानता कि मुझे किताबों से कब इतना इश्क हो गया मगर जुनूनी तो यकीनन ही मैं शायद अपनी मैट्रिक परीक्षा के बाद से हो गया था पढाई के प्रति । सबसे पहले जो दो किताबें बेहद दिलचस्प और हमेशा ही साथ रहीं वो  थी डिक्शनरी और एटलस । हमने पढना तो पढना उन दोनों में बहुत सारे दिलचस्प खेल भी तलाश रखे थे ।मसलन एटलस में देशों का नाम ढूंढने वाला खेल ।
.

मगर मैट्रिक के बाद पडी छुट्टियों और फ़िर उसके बाद पूरे कालेजियाने के दिनों में हमने कामिक्सों की दुनिया यानि कि फ़ैंटम , मैंड्रेक , चाचा चौधरी , फ़ौलादी सिंह , पिंकी , बिल्लू , रमन , मोटू पतलू , आदि की फ़्रैंडशिप से आगे बढते हुए , विजय , विकास , कर्नल रंजीत , वाली मोटे मोटे उपन्यासों की गोद में जा बैठे , उफ़्फ़ क्या दिन थे वे भी , होड सी लगी रहती थी पढने और खत्म करने की , किराए पर अठन्नी एक रुपए में भी मिल जाया करती थी । विजय विकास के कारनामें आज के कृष और जी वन से ज्यादा हैरतअंगेज़ हुआ करते थे , गजब की तिलस्मी दुनिया थी वो ,सबको एक मोहपाश में जकडे हुए , हमारे घर में चाचियों , मामियों तक के हाथों में गुलशन नंदा चमका करते थे ।
.
वो दौर भी बीता और स्नातक में अंग्रेजी साहित्य को करीब से जाना , पढा , समझा , शेक्सपीयर की जादुई दुनिया में खूब डूबे उतराए , जॉन कीट्स की कविताई भी बांचीं  और फ़िर  अपने संघर्षों के दिनों में परिचय हुआ गुनाहों के देवता से , जी हां हिंदी साहित्य से मेरी पहली पहचान जिस कृति से हुई बल्कि कहना चाहिए कि जिस युग से हो गई उसने फ़िर मुझे अपने मोहपाश में जकड लिया । अगली किताब जो हाथ में थी वो थी "मुझे चांद चाहिए " , सुना था कि इस किताब पर बाद में कोई धारावाहिक भी बना था , लगभग सात सौ पृष्ठों की वो किताब मैंने शायद तीन बार पढी थी , हर बार मज़ा आया था ।
.
इसके बाद तो जैसे एक जुनून सा हो गया मुझे , साहित्य की सारी किताबों को पढ जाने का और इसमें मेरा भरपूर साथ दिया राजधानी दिल्ली में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले दिल्ली पुस्तक मेले और विश्व पुस्तक मेले ने , शायद बीते वर्ष को छोडकर मैं पिछले बहुत सालों से लगातार जाता रहा । और इसके साथ ही दरियागंज की किताबों की वो संडे मार्केट । प्रेमचंद , नागार्जुन , आचार्य चतुर सेन , बंकिम समग्र , शरत साहित्य , शिवानी , अमृता प्रीतम , कौन सा नाम लूं और कौन सा नहीं , कुल मिलाकर भूख बढती गई किताबों और उनमें बसी छुपी दुनिया को पहचानने की ।
.
इसके बाद शुरू हुई असली परीक्षा जब विधि के छात्र के रूप में पाला पडा खूब भारी भारी गूढ समझ बूझ वाली विधि की पुस्तकों से । चूंकि कार्यक्षेत्र भी विधि का ही क्षेत्र रहा इसलिए मुझे इसे और बेहतर तरीके से जानने समझने की उत्कट इच्छा थी । जैसे जैसे विधि की पढाई करता जा रहा हूं और कानून के सारे हर्फ़ों को समझ रहा हूं उनकी बारीकी को जानने का प्रयास कर रहा हूं इस विषय के प्रति मेरा सम्मान बहुत ज्यादा बढता जा रहा है । इतने विस्तृत आयामों वाला कोई अन्य विषय मैंने नहीं पाया ।
.
मगर सफ़र के दौरान अब भी मुझे सिर्फ़ साहित्य की पुस्तकें अच्छी लगती हैं विशेषकर कहानियां और उपन्यास । सफ़र के दौरान निश्चित कुछ सामानों की सूची में किताबें सबसे ऊपर होती हैं ।  चलते चलते एक याद और वो ये कि बहुत सारे उन कमीने दोस्तों का भी शुक्रिया जो बहाने से मेरी किताब ले भागे और पढने पुढने के बाद भी कमब्ख्तों ने वापस नहीं की , देवदास और मधुशाला दोनों ही दोबारा खरीदनी पडी थीं मुझे , मगर  किताबों से हुआ ये इश्क अब दिनों दिन ज्यादा जवान होता जाता है .................

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

अथ जूतम जूता जुत्ते जुत्ते ....




इन दिनों आधुनिक काल में ईराकी समाज से से निकली प्रथा ..पदम पादुका पदे पदे ..यानि कि जूता चलाइए ..अभियान ने धीरे धीरे भारत में भी दोबारा से अपना महत्व स्थापित किया है । दोबारा से इसलिए कहे हैं काहे से कि ..श्री लाल शुक्ल  जी के इस ....राग दरबारी ..के एक अनमोल पन्ने पर , हमें इस प्रथा के प्रमाणिक होने के पुख्ता सबूत मिले हैं , देखिए





"इस बात ने वैद्य जी को और भी गम्भीर बना दिया , पर और  लोग उत्साहित हो उठे । बात जोता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गयी । सनीचर ने चहककर कहा कि जब खन्ना पर दनादन -दनादन पडने लगें तो हमें भी बताना । बहुत दिन से हमने किसी को जुतियाया नहीं है । हम भी दो-चार हाथ लगाने चलेंगे । एक आदमी बोला कि जूता अगर फ़टा हो और तीन दिन तक पानी में निगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता और लोगों को दूर दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है । दूसरा बोला कि पढे-लिखे आदमी को जुतियाना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड जाये, पर ज्यादा बेइज़्ज़ती न हो । चबूतरे पर बैठे बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीका यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले , निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फ़िर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे । चौथे आदमी ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा कि सचमुच जुतिआने का यही तरीका है इसलिए मैंने भी सौ तक गिनती याद करनी शुरू कर दी है ।"

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

कलूटी लडकियां हर शाम मुझको छेड जाती हैं .......











इन दिनों राग दरबारी सुन रहे हैं , श्री लाल शुक्ल जी को पढते हुए गजब अनुभव हो रहा है , न सिर्फ़ ग्राम जीवन से परिचय हो रहा है बल्कि हर दो पन्ने के बाद एक नए किरदार से मुलाकात हो जाती है । अभी तो चंद पन्नों को ही पलटा है.....................


"खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था । वैसे ही जैसे तिलक , पटेल ,गांधी , नेहरू आदि हमारे यहां जाति के नहीं , बल्कि व्यक्ति के नाम हैं । इस देश में जाति -प्रथा को खत्म करने की यही के सीधी सी तरकीब है । जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता । वह अपने-आप खत्म हो जाती है "

का धांसू बात कहे हैं शुकुल जी .. पहिलका लंबर पर इहे राग छेडे हैं कुल 330 पेज है , गज्जबे है ..बताएंगे धीरे धीरे आपको भी .....




"कलूटी लडकियां हर शाम मुझको छेड जाती हैं ।" इस मिसरे से शुरू होनेवाली कविता उन्होंने अफ़ीम की डिबियों पर लिखी थीं ..उन्होंने माने रामाधीन भीखमखेडवी जी ..अईसा सूचना ..शुकुल जी ..राग दरबारी में देते हैं ..अब इत्ता और पता चल जाए कि उक्त कविता कहां प्राप्त होगी ...अन्यथा मिसरे ने हमारा भी मिजाज फ़डका दिया है ...सोच रहे हैं मिसरे के पीछे पीछे होकर हम भी कुछ लिख ही डालें |




देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है । कारण यह अहि कि इस देश के निवासी परम्परा में कवि हैं । चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं । भाखडा-बांध को देखकर समझने के पहले वे कह सकते हैं ,"अहा ! अपना चमत्कार दिखाने के लिए , देखो , प्रभु ने फ़िर से भारत-भूमि को चुना । " ऑपरेशन -टेबल पर पडी हई युवती कोद देखकर मतिराम-बिहारी की कविताएं दुहराने लग सकते हैं ।........राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं । कमाल का उपन्यास है ,..जाने ,गांव देहात की कौन कौन गलियां घुमा रहे हैं शुकुल जी

अदालत में काम करते रहने के बावजूद आज तक अईसन परिभासा नय मिल सका जईसन सुकुल जी बता दिए " पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है , ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पडा रहा । इअनके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुकदमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पडा ही है "...राग दरबारी में


"ये यहां पब्लिक हेल्थ ए.डी.ओ हैं । जिसकी दुम में अफ़सर जुड गया , समझ लो अपने को अफ़लातून समझने लगा है " । ......अईसन अईसन घनघोर डेफ़िनेसन दिए हैं ..सुकुल जी न ...कि आपको जिंदगी का असली डेफ़िनेसन बूझा जाएगा ..

शुकुल जी बोले तो राग दरबारी में श्री लाल शुक्ल जी





अब तनिक कमीज माने कि शर्ट की परिभासा ," बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलसाफ़ी के अनुसार मैली होने के बावजूद कीमती होने के कारण पहनी जा सकती है " ....गज्जब हैं सुकुल जी ..जुलुम कर डाले हैं कसम से ....राग दरबारी ।


"यह हमारी गौरवपूर्ण परम्परा है कि असल बात दो चार घण्टे की बातचीत के बाद अन्त में ही निकलती है ।"...


"शास्त्रों में शूद्रों के लिए जिस आचरण का विधान है , उसके अनुसार चौखट पर मुर्गी बनकर उसने वैद्य जी को प्रणाम किया । इससे प्रकट हुआ है कि हमारे यहां आज भी शास्त्र सर्वोपरि है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमाण्टिक कार्रवाइयां हैं ।".....श्री लाल शुक्ल ...राग दरबारी में

गुरुवार, 19 मई 2011

हवा की खुशबू और बगीचों की घास से मोहब्बत......भारतीनामा





गुनाहों का देवता ..इस किताब को जाने कितनी ही बार पढ गया हूं ..कई बार एक ही सिटिंग में तो कई बार चुनिंदा चुनिंदा पन्नों को ..और बहुत बार कोई भी पन्ना खोल कर । इसका आकर्षण मुझे हर बार बांध के रख देता है । और इसके आकर्षण में बंध जाने या कहूं कि बंध कर रह जाने वाला शायद मैं अकेला नहीं हूं । मुझे नहीं पता कि खुद धर्मवीर भारती को गुनाहों का देवता को लिखते हुए या उसके बाद कैसा अनुभव हुआ होगा लेकिन एक पाठक के तौर पर मैं यकीनी तौर पर ये कह सकता हूं कि ये किताब एक चलचित्र की तरह आंखों के सामने चलती है और दृश्य बदलते जाते हैं । जाने वाला दृश्य आने वाले दृश्य का कौतूहल बढा देता है । और अगर आप प्रकृति के रूप के प्रेमी हैं तो समझिए कि आपको सुधा , बिनती , गेसू से प्यार हो न हो आपको पन्नों पर दर्ज़ मौसम , फ़ूल , पत्तियो , हवा की खुशबू और बगीचों की घास से मोहब्बत जरूर हो जाएगी । देखिए वो कैसे आसपास की प्रकृति में पात्रों को समाविष्ट कर लेते हैं ,। देखिए एक बानगी इसकी आप भी पढिए ।

एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी , और जिसकी कहानी मैं कहने जा रहा हूं , वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक , प्रभाती गाकर फ़ूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ़्रेड पार्क के लॉन पर फ़ूलों की सरजमीं के किनारे किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा कोट , जिसका एक कालर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफ़ेद मक्खन जीन का पतला पैण्ट और पैरों में सफ़ेद ज़री की पेशावरी सैण्डिलें , भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊंचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी लटा । चलते-चलते उसने  एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूंघ लेता था ।


पूरब के आसमान की गुलाबी पांखुरियां बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फ़ूलों पर बिछ रही थी । " अरे सुबह हो गई !" उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया । सामने से एक माली आ रहा था । " क्यों जी , लाइब्रेरी खुल गयी ?" अभी नहीं बाबूजी !" उसने जवाब दिया । वह फ़िर सन्तोष से बैठ गया उर फ़ूलों की पांखुरियां नोंचकर नीचे फ़ेंकने लगा । जमीन पर विछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थी और पेडों की छायाओं का रंग गहराने लगा था । उसकी बेंच के नीचे फ़ूलों की चुनी हुई पत्तियां बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ़ एक फ़ूल बाकी रह गया था । हलके फ़ालसई रंग के उस फ़ूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे ।

धर्मवीर भारती , ने पूरे उपन्यास में प्रकृति को शब्दों में पिरोने के लिए कमाल की जादूगरी दिखाई है जो शायद ही अन्य किसी कृति में दिखाई दिया हो । खुद धर्मवीर भारती भी शायद उसे दोहरा नहीं पाए । और इसीलिए ये एक कालजयी कृति बन गई , एक ऐसी किताब जिसके लिए मुझे हमेशा से लगता रहा है कि , ये किताब एक युग है जिसे पाठक पढते हुए जीता है । देखिए कुछ और पंक्तियां ...
चित्र गूगल से साभार , गुनाहों का देवता में चित्रित प्रकृति की छवि तो दुर्लभ है जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है

और उसे दूसरा शौक था कि फ़ूलों के पौधों के पास से गुजरते हुए हर फ़ूल को समझने की कोशिश करना । अपनी नाजुक टहनियों पर हंसते-मुस्कराते हुए ये फ़ूल जैसे अपने र्म्गों की बोली में आदमी से जिन्दगी का जाने कौन सा राज कहना चाहते हैं । और ऐसा लगता है जैसे हर फ़ूल के पास अपना व्यक्तिगत सन्देश है जिसे वह अपने दिल की पांखुरियों मेम आहिस्ते से सहेज कर रखे हुए है कि कोई सुनने वाला मिले और वह अपनी दास्तां कह जाये । पौधे की ऊपरी फ़ुनगी पर मुसकराता हुआ आसमान की तरफ़ मुंह किये हुए यह गुलाब जो रात-भर सितारों की मुसकराहट चुपचाप पीता रहा है म यह अपनी मोतियों-पांखुरियों के होठों से जाने क्यों खिलखिलाता ही जा रहा है । जाने इसे कौन सा रहस्य मिल गया है । और वह एक नीचे वाली टहनी में आधा झुका हुआ गुलाब, झुकी पलकों सी पांखुरियां और दोहरे मखमली तार सी उसकी डण्डी , यह गुलाब जाने क्यों उदास है ? और यह दुबली पतली लम्बी सी नाजुक कली जो बहुत सावधानी से हरा आंचल लपेटे है और प्रथम ज्ञात-यौवना की तरह लाज में जो सिमटी तो सिमटी ही चली जा रही है , लेकिन जिसके यौवन की गुलाबी लपटें सात हरे पर्दों में से झलकी ही पढती हैं , झलकी ही पडती हैं । और फ़ारस के शाहजादे जैसा शान से खिला हुआ पीला गुलाब ! उस पीले गुलाब के पास आकर चन्दर रुक गया और झुककर देखने लगा । कातिक पूनो की चांद से झरने वाले अमृत को पीने के लिए व्याकुल किसी सुकुमार , भावुक परी की फ़ली हुए अंजलि के बराबर बडा सा वह फ़ूल जैसे रोशनी बिखेर रहा था । बेगमबेलिया के कुंज से छनकर आने वाली तोतापंखी धूप ने जैसे उस पर धान-पान की तरह खुशनुमा हरियाली बिखेर दी थी ।


कल पढेंगे कुछ और पन्ने .......आप पढ रहे हैं न
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...