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सोमवार, 19 सितंबर 2016

कांच के शामियाने

कांच के शामियाने





किताबें पढना और बात और उन किताबों पर कुछ कहना या लिखना जुदा बात और ज्यादा कठिन इसलिए भी क्योंकि लेखनी से आप पहले से ही परिचित हों तो जी हाँ यह मैं, बात कर रहा हूं रश्मि रविजा के उपन्यास कांच  के शामियाने की। उपन्यास हाथ में आते हुई एक सांस में पढता चला गया और ये काम मैं पहली बार नहीं कर रहा था , खैर |


 चूंकि रश्मि मेरे मित्र समूह में हैं सो उनको मैं पढता तो लगभग रोज़ ही रहा हूँ और अपने आसपास घटती  घटनाओं , लोगों , समाचारों पर उनकी सधी हुई प्रतिक्रया अक्सर फेसबुक पर ही बहुत बडी बड़ी बहसों और विमर्शों का बायस बनी हैं | सो उनकी लेखनी से परिचय तो था ही हाँ उपन्यास के रूप में पढना अलग अनुभव रहा | 

खुल 203 पन्नों  से सजा हुआ यह उपन्यास बेहद खूबसूरत कलेवर ,उत्कृष्ट पेपर क्वालिटी के साथ  पेपर बैक  में लगभग हर ऑनलाइन स्टोर में उपलब्ध है , | वैसे इसके बारे में पढने के बाद जो बात मेरे विचार में तुरंत आई वो ये थी कि , पढने , दोबारा पढने , सहेजने , अपने किसी मित्र ,दोस्त ,सखा व् सहेलियों को उपहारस्वरूप देने योग्य एक उत्कृष्ट रचना साहित्य |

मैं आलोचक नहीं हूँ ,और हो भी नहीं सकता क्योंकि एक विशुद्ध पाठक की ही समझ अभी ठीक से बन नहीं पाई है । हाँ खुद इस अंचल से सम्बन्ध होने के कारण पूरे उपन्यास को पढ़ने के दौरान  मैं खुद कभी जया कभी राजीव ही नहीं बल्कि कभी घर आँगन और आसपास की सभी वस्तुओं में खुद को अनायास ही पाता रहा | 

कहानी एक साधारण सी शख्सियत के असाधारण से संघर्ष की कहानी है असाधारण  इसलिए  क्योंकि   उसे  पूरे जीवन  में  भीतर बाहर संघर्ष करना  पड़ता  है  |  उसकी लड़ाई अपने आसपास की परिस्थितियों , अपने आसपास मौजूद परिवारजनों , उनकी दकियानूसी सोच , और विशेषकर अपने जीवन साथी राजीव के विचित्र पुरुषवादी मानसिकता से तब तक चलती रहती है जब तक कि वो इस कांच के शामियाने को तोड़ कर पूरी तरह से बाहर नहीं निकल जाती  है |हालांकि बच्चों में सबसे छोटी जया अपने ससुराल वालों विशेषकर पति के हर जुल्म , हर ताने , हर प्रताड़ना को इतने लम्बे समय तक झेलने के लिए क्यों अभिशप्त हो जाती है , वो भी तब जब वो क़ानून अदालत समझती है , फिर भी उसकी ये विवशता मुझ जैसे पाठक को कई बार बहुत ही क्षुब्ध कर देती है |


लेखिका ने किताब में शैली इतनी जानदार रखी है और रही सही सारी कसर बोलचाल की आसान भाषा ने पूरी कर  दी है | पाठक सरलता से जया के साथ साथ उस  पूरी दुनिया को जी पाता है  | लेखिका  होने के कारण जया  के संघर्षों उसकी स्थिति , शारीरिक व् मानसिक , उसकी व्यथा उसकी कहानी को जितनी प्रभावपूर्ण और मार्मिक रूप से न सिर्फ महसूस बल्कि उसे शब्दों में ढाल कर हमेशा के लिए हम पाठकों के दिमाग में बसा कर रख दिया | या यूं कही कि जाया कांच के शामियाने से निकल कर पाठकों के मन में बैठ गयी और हमेशा रहेगी ठीक उसी तरह जैसे गुनाहों का देवता  की सुधा |

उपन्यास जया की पूरी कहानी है इसलिए जीवन के हर रूप रंग और धुप छाया से रूबरू कराती है मगर आखिर में जाया के जीवन में खुशियों सफलता और आत्मविश्वास का जो इन्द्रधनुष जगा देती है वो पाठक को एक सुखान्त सुकून सा देती है | सच कहूं तो सच होते अनदेखे सपने वाला अंश एक पाठक के रूप में जया जैसे किसी पात्र के दोस्त के रूप में भी मुझे सबसे अधिक पसंद आया , कुल मिला कर संक्षिप्त में कहूं और एक पाठक के रूप में कहूं तो पैसा वसूल है , फ़ौरन ही पढ़ डालने योग्य | 

6 टिप्‍पणियां:

  1. pahle blog pe active thi to rashmi ji ki rachnayen padhti rehti thi,idhar arse baad aana hua blog pe...aapki pratikriya kaam aayegi

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया और आभार पारुल जी प्रतिक्रया देने के लिए साथ व् स्नेह बनाए रखियेगा

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  2. अजय जी, मैंने शायद रश्मि जी के ब्लॉग्स पढ़े नहीं है। आपके द्वारा वर्णन पढने पर उत्सुकता हो रही है। अतः कृपया उनके ब्लॉग की लिंक बताइएगा।

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  3. अजय जी, मैंने शायद रश्मि जी के ब्लॉग्स पढ़े नहीं है। आपके द्वारा वर्णन पढने पर उत्सुकता हो रही है। अतः कृपया उनके ब्लॉग की लिंक बताइएगा।

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मैंने किताब को पढा और फ़िर लिखा ..आपने पोस्ट को पढा और ......लिखा क्या ??? अरे तो लिखिए न फ़िर ...क्या सोच रहे हैं जी

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